भगवान महावीर के जन्मोत्सव की दीपावली
महारानी त्रिशला नारी सुलभ शील, सौंदर्य, दया और ममता की प्रतिमूर्ति थीं. प्रजा के सुख में सुखी और दुख में दुखी हो जाना उनका सहज स्वभाव बन चुका था. उनके दयालुता से भरे स्वभाव, हाव-भाव तथा धार्मिक प्रवृति एवं करुणार्द्र चित्त से पूरा वैशाली क्षेत्र परिचित था. सात्विक आहार-विहार के साथ वे निरन्तर ईशचिन्तन में मग्न रहतीं थीं.
उस समय के भारतीय परिवेश में लगभग हर सौभाग्यवती नारी अपने मन में संतान की आकांक्षा पालती थी, और हर समर्थ नारी अपने सामर्थ्य के अनुरुप सुन्दर एवं श्रेष्ठ संतान को जन्म देने के सपने आज भी देखती है. भारतीय धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में पौराणिक आख्यानों या राज-समाज के ख्यात्, पौरुष-सम्पन्न तथा उदात्त चरित्रों में समाहित प्रकृति वाली संतान पाने के सपने हर कल्पनाशील औरत देखती पायी जाती है.
हमारे समाज में यह कथन प्रचलित है कि माँ के मनोभाव के अनुसार पुत्र में संस्कार के अंकुर विकसित होते हैं. महारानी त्रिशला ने शुभ मुहूर्त में गर्भ धारण किया था. इस तथ्य से अवगत होते ही उनके मन में सर्वोत्तम संतान जनने का भाव पल्लवित होने लगा था. उनके गर्भवती होने की सूचना पाते ही महाराज सिद्धार्थ ने उनकी सेवा में तैनात दासियों को महारानी की हर इच्छा की पूर्ति के लिए आवश्यक निर्देश दे दिये थे.
रनिवास की वाटिका को सुगंधित और मोहक मौसमी फूलों से सजाया गया था. महारानी त्रिशला की इच्छा के अनुसार निरंतर यज्ञ और धार्मिक कथा-वाचन का आयोजन हो रहा था. महारानी अपनी सोच एवं स्वभाव के अनुसार कथा श्रवण करते वक्त उन नायकों के चरित्रों की कल्पित तस्वीरों से साक्षात्कार करते हुए भावलोक में डूब जाया करतीं थीं. वैदिक और पौराणिक कथाओं को सुनते समय उनके मन में समाज में फैले शोषण के विविध स्वरूपों और धर्मिक आयोजनों से संपृक्त आडंबरों के प्रति कभी-कभी मन में विद्रोही विचारों का जन्म होने लगता था. इसी सोच के कारण वे राजशाही की परम्परा के विरुद्ध अपनी सेवा में तैनात दासियों से सम्माजनक व्यवहार करतीं थीं. सेवकों से बात करते हुए उनके शब्दों में अहंकार की खनक तक नहीं होती थी.
अति मानवीय भावभूमि पर जीने वाली महारानी ने एक रोज अपने मन के उफान को सिद्धार्थ से प्रकट करते हुए कहा, “भहाराज हमारे सेवक-सेविका भी तो मनुष्य ही हैं, उनकी भी अपनी इच्छाए हैं, स्वतंत्र होकर उन्हे भी सुखद सांस लेने का अधिकार है, फिर हम उन्हें अपनी सुविधि और अहंकार और शक्ति की मदान्धता में गुलाम क्यों बनाते हैं?”
उस समय के इस ज्वलंत प्रश्न को निगलते हुए महाराज सिद्धार्थ ने रटे-रटाये अन्दाज में “यह उनके पूर्वजन्म के कर्मों का दोष है,” कहकर मौन साध लिया था, लेकिन महारानी के निर्दोष प्रश्न ने उनके चित्त को घेर लिया था.
गर्भवती महारानी अपने गर्भ के पोषण एवं संरक्षण हेतु सचेत होकर अहिंसक भाव से सदा किसी तरह के मानसिक अपराध से भी बचना चाहतीं थीं. ऐसी ही मनःस्थिति में एक रात सपनों की एक श्रृंखला ने महारानी को गहरी नींद से झकझोर कर जगा दिया. ब्रह्ममुहूर्त में अचानक जगकर गुमसुम बैठीं महारानी को देखकर महाराज सिद्धार्थ ने प्रीतिपूर्वक महारानी से इस तरह अचानक उठ-बैठने का कारण पूछा. महारानी ने कुछ प्रसन्न किन्तु चिन्तित-सी मुद्रामें अपने सपनो के विषय में कह सुनाया. तब उन्होंने पूछा, “ऐसा क्या देखा कि इस तरह से उठ-बैठीं ?” तब महारानी ने बतलाया कि उन्होंने विशाल और सुन्दर उजले हाथी, श्वेत और सुन्दर वृषभ, कमलासना भगवती लक्ष्मी, रजतकलश-सा चमकदार स्वच्छ चाँद, कदम्ब-पुष्पों की माला, रक्ताभ तेजस्वी सूर्य, स्वर्णदंड में लहराता पताका, रत्नमणि जड़ित विशाल सिंहासन, सुगंधपूरित देव-विमान, आकर्षक और मोहक नाग-विमान, जल से लबालब भरा कलश, पारदर्शी-चंचल मीन युगल और विशाल तथा गंभीर क्षीर सागर, लहराते-झूमते सुगंधित कमल के फूलों से भरा सरोवर, एक रत्नों की ढेरी, एक लहकती ज्वाला वाला अग्नि-पुंज देखा.”
सुनकर महाराज ने मुस्कुराते हुए कहा, “महारानी! आप चिन्तित न हों, मेरी समझ से स्वप्नप्रतीक तो अच्छे लग रहे हैं, फिर भी मैं सुबह ही स्वप्न-विशेषज्ञों को बुलाकर इस स्वप्न के गुण-दोष का विश्लेषण करा लेता हूँ.” इतना कह वे महारानी की पीठ सांत्वनाभरी हथेली से सहलाते हुए फेरकर अपने शयनकक्ष से निकले.
सुबह ही स्वप्न विशेषज्ञों एवं ज्योतिषियों को बुलाकर महारानी पद्वारा देखे गये स्वप्न का वृतान्त कहकर उसका फल निकालने को कहा. विशेषज्ञों ने प्रत्येक स्वप्न-प्रतीक का विश्लेषण कर बताया: “महाराज!स्वप्न-फल अति शुभ संकेतों से भरे हैं. मनन से लगता है कि महारानी शीध्र ही एक पुत्र-रत्न को जन्म देंगीं. इस संतान के कर्म एवं प्रतिभा से कण्डग्राम के साथ माता-पिता का नाम एवं यश पूरे संसार में सुगंध की तरह फैलेगा.”
इतना सुनते ही महाराज सिद्धारर्थ ने गहरी सांस ली और उनके चेहरे पर हर्ष की चाँदनी छिटकती दिखी. उसी वक्त उन्होंने ज्योतिषियों को बहुमूल्य उपहार देकर विदा किया. कुछ दिनों बाद पूरी प्रकृति जब वासंती परिधान में सज-संवर गयी, फूलों के रंग से जब धरती का आँचल और सुगंध से वायुमंडल मतवाला हो गया, कोयल की कूक और भ्रमर-गुंजार वाटिका और बाग सम्मोहित करने लगे, ऐसी ही वासंती वेला में (599 ई.पू.), चैत्र शुक्ल त्रयोदशी की मध्य रात्रि में महारानी त्रिशला ने दिव्य आभा से सम्पन्न पुत्र को जन्म दिया.
महारानी की सेवा में लगीं सेविकाओं में खुशी की लहर दौड़ गयी. राजकुमार के जन्म से कुण्डग्राम राज्य का भविष्य संवरा, ऐसा सोचकर सारी दासियाँ हर्षोल्लास से भर गयीं. ऐसे उद्गार से भरा संवाद लेकर परिचारिका प्रियम्वदा महाराज सिद्धार्थ के पास पहुँची और उसने हर्ष से हकलाते, हाथ जोड़कर शीष नवाते हुए कहा, “महाराज आज हम सभी लोगों का भाग्य संवर गया है, महारानी की गोद मे अपने राजकुवंर आये हैं.”
इतना सुनते ही महाराज सिद्धार्थ हर्ष-विभोर हो उछल पड़े और उसे ऐसा सुखद संदेश पहुँचाने के पुरस्कार स्वरूप, महारानी की सोच के अनुसार, सदा के लिए दासी कर्म से मुक्त कर दिया. इसके बाद अपने सेवक के माध्यम से नगर-रक्षक को बुलाकर राजकुमार के जन्म की सूचना देते हुए नगर-उत्सव आयोजित करने का निर्देश दिया.
अश्वारोही धावकों के माध्यम से राजकुमार के जन्म एवं उत्सव के आयोजन की सूचना जन-जन तक पहुँचा दी गयी. नवजात् राजकुमार के नामकरण संस्कार सम्पन्न होने तक बारह-दिवसीय दीपोत्सव की घोषणा कर दी गयी. राज्यभर के कलाकारों को आमन्त्रित कर सुगम संगीत तथा लोकनृत्य आदि की प्रस्तुति के लिए राजमहल से लेकर नगर के मुख्य चौराहे तक मंच बनाकर आमोद-प्रमोद की उत्तम व्यवस्था की गयी. सभी आगन्तुक नागरिकों एवं उत्सव-सहभागियों के लिए हर मुहल्ले में सात्विक सुभोजन की व्यवस्था थी. दिनभर के नृत्य-संगीत की झंकारों एवं स्वर लहरियों मे सारे नागरिक आनंद की लहरियों पर तैरने लगे. कलाकारों ने विशेष तौर पर दीपदानों को विशेष झालरों में सजाकर महल के द्वार और मुख्य मार्गों को इन्द्रधनुषी आभा से सजा दिया. जगह-जगह सुगन्धित मशालों की व्यवस्था कर पूरे नगर को गुलिब और केवड़े की गंध से महका दिया गया. इस आयोजन का हर सहभागी अपने भाग्य की सराहना कर रहा था.
शिशु के नामकरण संस्कार के दिन ग्रहों की शांति के साथ कुलदेव, ग्राम-देव, महालक्ष्मी-विष्णु, शक्ति-शिव आदि समस्त देवों का विधिवत् पूजन और हवन आदि करके जन्म-राशि और मुहूर्त के अनुसार महाराज सिद्धार्थ ने उपस्थित जन समुदाय के समक्ष समर्थन हेतु ‘वर्द्धमान’ नाम की जैसे ही घोषणा की, उपस्थित जनसमुदाय द्वारा महारानी, महाराज, शिशु वर्द्धमान तथा अपने राज्य की जयकारों से सम्पूर्ण वातावरण को गूंज -अनुगूंज से भर दिया गया.
इस अवसर पर महाराज ने आह्लादित होते हुए कहा, “अपने राजकुमार के जन्म लेने के साथ ही अपने राज्य की समृद्धि में वृद्धि हो गयी. इस उत्सव के आयोजन से हमलोग नये भाईचारे एवं अपनत्व के धागे से बांधे गये हैं. इस असीम अनुकम्पा के लिए मैं परमेश्व को नमन करता हूं और आप बन्धुओं के इस उत्साह प्रति आभार व्यक्त करता हूँ. इस अवसर पर मैं महारानी भावना के अनुसार राज्य के सभी बन्दी जनों की मुक्ति की घोषणा करता हूँ, साथ ही, इस अवसर पर अपनी कला के प्रदर्शन से इस उत्सव को अविस्मरणीय बनाने वाले कलाकार बन्धुओं में से प्रत्येक व्यक्ति को राजकोष से सौ-सौ स्वर्ण मुद्राएं ग्रहण करने हेतु आमंत्रित करता हूँ.
महाराज की इस घोषणा को सुनते ही उपस्थित लोगों ने पुनः राजा-रानी एवं राजकुमार के प्रति हर्षोल्लास से भरा जयकारा लगाकर वातावरण को निर्दोष बना दिया. अंत में मंच के पार्श्व से निकलने वाली शंख एवं नगाड़े की ध्वनि को सुनकर सारे नागरिक हँसते-हँसाते अपने-अपने घर को चले.
क्या उनमें से कोई जानता था कि जिसके जनमोत्सव में वे उस दिन हर्षोल्लास तथा आनन्द के अतिरेक से सम्मिलित हुए थे, वही नन्हा-सा शिशु, काल के अनंत भाल पर अपनी अमिट छाप छोड़ने के लिए, जैन धर्म का चौबीसवां तीर्थंकर वर्धमान महावीर बनने हेतु अवतरित हुआ था!
