पूर्णानन्द
श्री गणेश का स्मरण करते ही दुर्बुद्धि का नाश हो जाता है. समस्त मानसिक कमजोरियों एवं उन्मादक विकारों को हर लेने वाले, बुद्धि और ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी, गजमुख ही हैं. बुद्धि पर पड़े विलास के आसुरी आवरण को हटाकर, देवों-मुनियों और मानव समाज को सुख-शांति एवं अभय प्रदान करने वाले, प्रथम पूज्य देव, गणपति, विघ्नहर्ता और मंगलकर्ता आदिदेव के रूप में प्रतिष्ठित हैं. गजानन ने हर पौराणिक कालखण्ड में, देवों की प्रार्थना पर प्रकट होकर, समय के भाल पर अंकित आसुरी आतंक की कालिमा को धोने का कार्य किया है.
जब भी भोगवादी प्रवृत्तियों का विकास हुआ, सामाजिक समरसता की सरिता में, भाव प्रवाह का अभाव हुआ, और, दैवी तथा मानवीय गुणों का ह्रास हुआ. सुकर्म पर कुकर्म, और, सुबुद्धि पर दुर्बुद्धि का वर्चस्व कायम हुआ. देवों, ऋषियों, और त्रस्त मानवों की प्रार्थना पर गणपति ने प्रकट होकर, आसुरी शक्तियों शमन किया.
दैवी और दानवी प्रवृतियों के गुण समान मात्रा में रक्त के साथ प्रवाहित होते हैं. परिवार और समाज के पोषण और पल्लवन के भाव से दैवी या दानवी शक्तियाँ मनुष्य के मस्तिष्क पर अपना आधिपत्य स्थापित करतीं हैं. गजानन, अज्ञानियों को ज्ञान, और, दुर्बुद्धि वालों को दंडित कर सुबुद्धि प्रदान करने वाले बुद्धिविधाता हैं. तभी तो उन्होंने दुर्बुद्धि नामक दैत्य को पहले तो सुबुद्धि के मार्ग पर चलने, और, अपनी शरण में आकर परिमार्जित होने का संदेश भेजा, लेकिन, जड़बुद्धि सठ दुर्बुद्धि हठ छोड़नेको तैयार नहीं था. सुधार की कोई संभावना नहीं दिखने पर महोदर ने अंत में उसका वध कर दिया.
दुर्बुद्धि का पुत्र ज्ञान का शत्रु ही हो सकता था. उसके पुत्र ज्ञानारि के मन में पिता का वध करने वाले गजानन से प्रतिशोध लेने का भाव पल रहा था. ज्ञानारि ने शुक्राचार्य से दीक्षा ली, और, उनके निर्देशानुसार, भगवान् शंकर को प्रसन्न करने हेतु, शिव की आराधना के पंचाक्षरी मंत्र, ‘नमः शिवाय’ का जाप करते हुए कठोर तप करने लगा. हठपूर्ण साधना से ब्रह्मण्ड की दिव्य शक्तियों को रिझाने में दानवी शक्तियाँ हर काल में सफल होती रहीं हैं. ज्ञानारि के कठोर तप से संतुष्ट भगवान् शंकर ने प्रकट होकर वर मांगने को कहा. उसने शिव के चरणों में शीश नवाते हुए कहा, “प्रभु, मुझे निर्भय होकर जीवनयापन करने का वरदान देने की कृपा करें!” भगवान् शंकर ने उसे निर्भय होकर सर्वत्र विचरण करने का वर प्रदान किया.
असुर रक्त में शक्तिसम्पन्नता के साथ ही दैवी ऐश्वर्य और सुख-सम्पदा पाने की कामना बलवती हो जाती है. दानव समुदाय, संचित शक्ति से, उपार्जन से अधिक शोषण-दोहन से धनार्जन करने में विश्वास रखता है. अभयता का वर प्राप्त होते ही ज्ञानारि के नेतृत्व में, अज्ञानी राक्षसों का समुदाय संगठित होकर, अनीति, अनाचार, छल, प्रवञ्चना, असत्य, अधर्म और दुराचार के मार्ग पर निरंकुश होकर, निर्बाध चलने लगा. सर्वत्र हाहाकार मच गया. आध्यात्मिक और बौद्धिक क्षमता में ह्रास होने से तीनो लोक श्रीहीन हो गये.
मूढ़मति दानवों के साम्राज्य में देवों को इस अवस्था से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं दिख रहा था. अनाथ और असहाय देवसमुदाय अपनी दीनहीन स्थिति से मुक्ति पाने का उपाय ढूंढ़ने विष्णु के पास पहुँचा. विष्णु ने सारी व्यथा-कथा सुनने के बाद कहा, “हे, देववृन्द! इस विषम अवस्था से उबारने का कार्य, सर्वदुःखहर्ता श्री गणेश को छोड़कर कोई दूसरा नहीं कर सकता. आपलोग उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनके दशाक्षरी मंत्र (गं क्षिप्रप्रसादनाय नमः) के सामूहिक जप से गणेश की उपासना करें! विघ्नेश अवश्य कल्याण करेंगे.
त्रस्त देवगणोंने एकाग्रता के साथ महोदर की उपासना की. महोदर ने इस सामहिक उपासना ने तुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी से स्वप्न में आकर कहा, “मैं तुम लोगों की आराधनासे प्रसन्न हूँ. मैं तुम्हारे पुत्र के रूप में प्रकट होकर, देव-समुदाय की इच्छा की पूर्ति करूंगा! लक्ष्मी तो स्वभावतः चंचला मानी जातीं हैं. उनका मन इस स्वप्न-दर्शन के बाद और भी चंचलता से भर गया. महोदर को पुत्ररूप में पाने की कल्पना में वे हर पल खोयी रहतीं थीं. मातृत्वसुख धरती की धरोहर है. ममता, मातृत्व एवं वात्सल्य-सुख के लिए तरसते देव-देवियों ने हर युग में जन्म लेकर धरती के लिए आरक्षित इस भावसुख का आनंद लिया है. माँ के लिए संतान की किलकारी, और संतान के लिए माँ की ममताभरी गोद का भावरस ब्रह्मानंदसहोदर है. इसी भावदशा में खोयी माता लक्ष्मी ने एक रात अपनी शय्या पर प्रभापुंज-से तेजस्वी अद्भुत शिशु को किलकारी से आलोक बिखेरते देखा. अपने स्वप्न को याद करते हुए, लक्ष्मी ने आनंद विभोर होकर बालक को गोदमें भरकर पुकारा, “पूर्णानन्द!” और इस तरह महोदर के अवतरित रूप का नाम हो गया, पूर्णानन्द.
ऐसी मान्यता रही है, कि, नामराशि भी किसी व्यक्ति के गुणों, प्रवृत्तियों एवं सामाजिक-सांस्कृतिक संस्कारों का परिचय देती है. दैत्यराज ज्ञानारि का पुत्र सुबोध, नाम के अनुरूप ही, आसुरी प्रवृत्तियों से पृथक आचरण करने वाला था. बुद्धि-विवेक के देव, महोदर में, उसकी गहन आस्था थी. वह हर पल महोदर के गुण गाता, और उन्हीं के ध्यान में, डूबा रहता था. हर समय वह पूर्णानन्द का नाम जपने में मग्न रहता था. ज्ञानारि को पुत्र सुबोध का यह आचरण अच्छा नहीं लगता था. उसने बार-बार अपने पुत्र को पूर्णानन्द की भक्ति छोडधने के लिए समझाया, लेकिन सुबोध अपनी निष्ठा पर अडिग रहा. अन्ततः ज्ञानारि क्षुब्ध होकर उठा और सुबोध को मारने डालने का डर दिखाते हुये गरज कर कहा, “तू यदि महोदर की स्तुति करना नहीं छोड़ेगा, तो मैं तुझ मार डालूंगा ! तू मुझे बता तो सही, कि, तेरा आराध्य, वह पूर्णानन्द महोदर, कहां रहता है?”
सुबोध ने ज्वालामुखी के समान कुपित हो आग उगलते पिता के प्रश्न का उत्तर अत्यन्त शांत और संतुलित ढंग से देते हुए कहा, “पूज्य पिता जी! मेरे आराध्य, गजमुख महोदर, सर्वव्यापी हैं. प्रकृति के कण-कण में उनका वास है. परमकृपालु, सर्वसमर्थ मूषक-वाहन की कृपा से ही, प्रकृति में गति है. वे अभय और मंगल के दाता हैं.”
ज्ञानारि को सुबोध का यह उत्तर, उसके गुस्से के लिये, आग में घी डालने जैसा लगा. क्रोधाग्नि में उबलतेहुए उसने कहा, “यदि ऐसा है, तो वह यहाँ भी होगा?”
सुबोध ने हाथ जोड़ते हुए, विनय की मुद्रा में उत्तर दिया, “हाँ, पिता जी ! महोदर की उपस्थिति हमारी और आपकी सांसों में भी हैं.”
सुबोध के उत्तर देते ही, वहाँ का वातावरण ऊष्मा से भर गया. आकाश में विद्युत कौंधने और विस्फोट होने का भयावह दृश्य उपस्थित हो गया. उसी क्षण सबने देखा, कि, मोह के परिसर में जैसे, साक्षात् सूर्य के उतर कर खड़े हो गये हों ! इस अकल्पित, अद्भुत अलौकिक दृष्य को देख, ज्ञानारि की वाणी अवरुद्ध हो गयी. कुछ सोचने-समझने की क्षमता नष्ट हो गयी. उसने अपने सामने, दिव्यास्त्रों से सुसज्जित, परम तेजस्वी और भयानक गजानन को देखा. उसने जानना चाहा कि वह अद्भुत प्राणी कौन था, लेकिन, मूढ़ता की प्रतिमूर्ति ज्ञानारि को समय देने का समय समाप्त हो चुका था. पूर्णानन्द ने उसी क्षण आश्चर्य मे डूबे ज्ञानारि का वध कर डाला.
सभी देवगणों ने राहत की सांस ली और पूर्णानन्द की स्तुति कर अपने कर्मपथ पर अग्रसर हुए.
